रोग परिचय- रक्त कैंसर (Leukaemia ) का सामान्य अर्थ सफेद रक्त कोशिकाएं से है. लेकिन प्रायः इसे रक्त कैंसर कहा जाता है. यह उन कोशिकाओं का कैंसर है जिनसे रक्त कणिकाओं का निर्माण होता है.

Leukaemia एक ऐसी स्थिति है जिसमें सारे शरीर के श्वेत कोशिका जनित ऊतकों का असामान्य एवं अत्यधिक प्रफलन होने लगता है. श्वेत कोशिका श्रृंखला की कोशिकाओं का सृजन इतनी तेजी से होने लगता है कि अधिक संख्या में अपरिपक्व कोशिकाएं भी परिसंचरण में आ जाती है, परिणाम स्वरूप परिसरीय रक्त में संपूर्ण श्वेत कोशिका गणना बहुत ही बढ़ी हुई होती है तथा उसमें अधिकांश कोशिकाएं अपरिपक्व होती है.
ल्यूकीमिया किसी भी उम्र के लोगों में होने वाली बीमारी है. लेकिन बच्चों में अधिक पाया जाता है. खून के अंदर सफेद कोशिकाओं की संख्या बढ़ जाती है. प्रचलित भाषा में इसको रक्त कैंसर एवं मेडिकल भाषा में के नाम से Leukaemia जाना जाता है.
नोट- श्वेत कणों का कार्य शरीर के अंदर प्रविष्ट हुए जीवाणु आदि को नष्ट करना होता है. यह श्वेत कण भी लाल रक्त कण की भांति अपनी सामान्य स्थिति में आने से पूर्व विभिन्न रूपों एवं विभिन्न स्थितियों से गुजरते हैं. जब श्वेत रक्त कण अपनी सामान्य स्थिति में पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो पाते अथवा अपरिपक्व ही बने रहते हैं ऐसी स्थिति में रक्त कैंसर कहते हैं.
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रक्त कैंसर ( Leukaemia ) होने के कारण-
रक्त कैंसर होने के कारण आज भी रहस्य बना हुआ है. कैसे और किन परिस्थितियों में श्वेत कोशिका श्रृंखला की कोशिकाएं असामान्य रूप से बढ़ने लगती है. यह बात एक रहस्य बन कर रह गई है. इस बारे में जो भी अनुमान लगाए गए हैं वे इस प्रकार हैं-
1 .अर्बुद परिकल्पना- साधारण इसे रक्त कैंसर कहा जाता है. आज तक जो भी जानकारी मिली है इसके आधार पर सबसे ज्यादा संभावना यही है कि यह एक प्रकार की कैंसर प्रक्रिया है जो श्वेत कोशिका श्रृंखला को अक्रांत करती है.
2 .संक्रमण परिकल्पना- यह परिकल्पना प्रयोगशाला में प्रयोग के आधार पर की गई है.
3 .क्रोमोसोमी दोष- एक कारण यह भी है कि रक्त कैंसर आक्रांत व्यक्ति में किसी क्रोमोसोमी दोष के परिणाम स्वरूप होता है. चिरकारी मज्जाभ ल्यूकीमिया की तेजी से बढ़ती हुई कोशिकाओं में फिलाडेल्फिया क्रोमोसोम का पाया जाना इस धारणा की पुष्टि करता है. डाउन सिंड्रोम ( जिसमें 21वें क्रोमोसोम में दोष होता है ) के केसों में ल्यूकीमिया का आघठन ज्यादा होता है.
4 .आयनीकरण रेडिएशन- ऐसा ज्ञात हुआ है कि विकिरण यानी रेडिएशन यदि शरीर के अंदर अत्यधिक मात्रा में प्रवेश कर गया तो वह अस्थियों की कार्य क्षमता को बढ़ाकर रक्त कैंसर उत्पन्न करता है. इसलिए कुछ वर्षों पूर्व इंग्लैंड में व्यक्तियों की मृत्यु के कारणों का सर्वेक्षण किया गया तो ज्ञात हुआ कि रक्त कैंसर से मरने वालों की संख्या एक्स- रे का कार्य करने वालों की थी. इसी प्रकार कुछ डॉक्टर कैंसर के उपचार का साधन ना जानते हुए भी कैंसर के रोगियों का उपचार रेडिएशन द्वारा कर देते हैं. ऐसे कैंसर के रोगी अन्य स्थान के कैंसर के अतिरिक्त रक्त कैंसर से पीड़ित होते हैं. इन्हीं सब कारणों से हर व्यक्ति को इस बात की सलाह दी जाती है कि बिना किसी कारण के एक्स-रे द्वारा जांच नहीं करानी चाहिए और विशेषकर गर्भवती महिला को. क्योंकि गर्भवती महिला इसके दुष्प्रभाव से स्वयं तो प्रभावित होती ही है साथ ही उसके भ्रूण में पल रहा शिशु अथवा गर्भ भी प्रभावित होता है और शिशु को यदि आवश्यकता से अधिक एक्स-रे की किरणें मिल गई तो रक्त कैंसर हो सकता है अथवा उसके अंदर किसी प्रकार की असामान्यता भी आ सकती है.
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5 .चयापचय दोष- एक संभावना यह भी है कि अकरांत कोशिकाओं की चयापचय क्रिया में कोई परिवर्तन हो जाता हो, कुछ दवाएं जो अस्थि मजा De-press करती है. वह शायद किसी अन्य प्रकार की चयापचयी प्रक्रिया द्वारा Leukaemia भी पैदा कर सकती है.
6 .इम्यून प्रक्रिया- इस प्रक्रिया का भी योगदान रक्त कैंसर पैदा करने में हो सकता है. उत्तर संयोजक एंटीजन का कुछ प्रभाव हो सकता है. जिन व्यक्तियों में HL-A2 या HL-A12 एंटीजन ज्यादा होते हैं. उनमें Leukaemia होने की संभावना अधिक होती है.
ल्यूकीमिया बच्चों में अन्य कैंसरों की अपेक्षा अधिक होती है तथा 3 से 15 वर्ष के बच्चों की मृत्यु का एक प्रमुख कारण है. बच्चों में प्रमुख रूप से एक्यूट लिंफोसाईटिक ल्यूकीमिया होती है सौभाग्य बस इस प्रकार की Leukaemia के इलाज में काफी उन्नति हुई है. यद्यपि बच्चों में ग्रेनुलोसाइटिक ल्यूकीमिया हो सकती है. लेकिन बहुत कम किशोरों में एक्यूट ग्रेनुलोसाइटिक ल्यूकीमिया सर्वाधिक होती है. क्रॉनिक लिवर ल्यूकीमिया प्रायः 40 वर्ष से अधिक की उम्र में होती है. व्यस्को में भी एक्यूट ल्यूकीमिया हो सकती है तथा यह ग्रेनुलोसाइटिक व लिंफोसाईटिक दोनों प्रकार की हो सकती है. समस्त Leukaemia के आधे से अधिक रोगी 60 वर्ष से अधिक उम्र के होते हैं. क्रोनिक रोगों का उपचार प्रायः संभव नहीं हो पाता है.
रक्तकैंसर ( Leukaemia ) के लक्षण-
- ल्यूकीमिया के कोई प्रमुख प्रारंभिक लक्षण नहीं होते हैं.
- एक्यूट ल्यूकीमिया- तीब्र Leukaemia वह स्थिति है जिसमें अनेक अपरिपक्व श्वेत कोशिका- प्रसू कोशिकाएं परिसरीय रक्त संचरण में पाई जाती है. तीव्र ल्यूकीमिया सबसे सामान्य प्रकार का तीव्र ल्यूकीमिया होता है. वैसे कम उम्र के बच्चों में तीव्र लसिकाभ ल्यूकीमिया ज्यादा होता है.
- दोनों ही प्रकार के तीव्र की मियां के लक्षण लगभग एक जैसे होते हैं.
- यह प्रायः बच्चों में अचानक होता है तथा तेजी से बढ़ता है इसके लक्षण जुकाम जैसे होते हैं.
- प्रारंभिक लक्षणों में थकान का होना, पीलापन, भूख नहीं लगना, वजन कम होना, बार- बार इन्फेक्शन का होना, रात में पसीना आना, हड्डियों व जोड़ों में दर्द, बुखार, आसानी से खरोच लगना, नाक से खून आना तथा शरीर के अन्य भागों से खून का आना.
- जिगर, स्प्लीन, लिंफ ग्रंथियां बढ़ सकती है.
- एनीमिया हो सकती है.
- चिड़चिड़ापन एवं अलसीपन.
- शरीर का रंग सफेद पड़ जाता है, दिल का दौरा बढ़ जाता है व तेज रक्त प्रवाह से उसमें मरमर की आवाज सुनाई देती है.
- प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाने से संक्रमण व बुखार के आसार अधिक हो जाते हैं.
- कई मरीजों को छाती के बीचों- बीच हुआ हड्डियों में दर्द रहता है.
- तिल्ली बढ़ जाती है.
- केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के प्रभावित हो जाने पर सिर दर्द, उल्टी या गर्दन में अकड़न रहता है.
- गंभीर स्थिति में अधिक थकान, रक्त स्राव, दर्द, तेज बुखार, मसूड़ों की सूजन व त्वचा के रोग हो सकते हैं.
नोट- इसकी शुरूआत मामूली लक्षण से होते हैं. जैसे- जुकाम, अत्यधिक थकावट या बढ़ती हुई रक्त की कमी से होती है. हड्डियों में दर्द होता है तथा उस पर दाब वेदना मिलती है. स्टर्नम के ऊपर दाब वेदना मिलना एक प्रमुख लक्षण होता है.
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रक्त कैंसर के आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपचार-
1 .प्रवाल आदि चूर्ण 2-2 ग्राम, स्वर्ण बसंत मालती 2-2 बटी और वसंत बहार रसायन 10 ग्राम सुबह-शाम दूध के साथ. राजयोग वटी 2-2 और आरोग्यवर्धिनी वटी 2-2 और कमलेषु चूर्ण, कांत लौह युक्त और द्राक्षादी चूर्ण 1-1 ग्राम दिन में दो- तीन बार सेवन कराएँ.
2 .आलूबुखारा पानक 20 मिलीलीटर सुबह- शाम पीना चाहिए.
3 .फौलाद भस्म, अभ्रक भस्म, कामदुधा बटी, रोहितकारिष्ट, लोहासव, कुमारी आसव, द्राक्षासव, पुनर्नवादि क्वाथ आदि भी ब्लड कैंसर के लिए उत्तम है.
4 .नीम के पत्तों का रस, गेहूं के अंकुरों का रस, घृतकुमारी, स्वर्ण भस्म, हीरे की भस्म, कांत लौह भस्म, ताम्र भस्म, मोती आदि रत्नों की पिष्टी, च्यवनप्राश, मल चंद्रोदय, समीर पन्नग रस, मकरध्वज, संशमनी वटी, सितोपलादि चूर्ण, तालीसदी चूर्ण, सारिवादि चूर्ण आदि उत्तम योग है. रोगानुसार इसका सेवन करना रक्त कैंसर में लाभदायक होता है.
5 .यदि मूख, गले, स्वर यंत्र में कैंसर हो तो दूध में अमलतास डालकर उससे कुल्ला करें. नीम के पत्तों के रस से कुल्ला करें या अपने पेशाब से कुल्ला करें.
6 .तालीसादि चूर्ण, सितोपलादि चूर्ण 100-100 ग्राम, हीरक भस्म 1 ग्राम, स्वर्ण भस्म 1 ग्राम डालकर उसे अच्छी तरह से मिलाकर सुरक्षित रखें. उसमें से 2 ग्राम की मात्रा में दिन में तीन बार शहद के साथ सेवन करें. इससे गले का कैंसर दूर हो जाता है.
नोट- उपर्युक्त लक्षण दिखने पर डॉक्टरी सलाह लें एवं उपर्युक्त चिकित्सा लेने से पहले किसी योग्य वैध की सलाह जरूर लें. क्योंकि रोग की स्थिति एवं दवा की उचित मात्रा से ही स्वास्थ्य लाभ होगा.