रोग परिचय- बवासीर को अर्श, हेमोरॉइड्स, piles आदि नामों से जाना जाता है. जब गुदाद्वार के अंदर चारों ओर की शिराओं जो श्लैश्मिककला के नीचे रहती है में उग्र दाह हो जाता है, परिणाम स्वरूप वहां छोटे-छोटे अर्बुदों की तरह प्रतीति होने लगती है. यह प्रसरित शिराओं के गुच्छे ही अर्श ( बवासीर ) कहलाते हैं, अर्थात इस अवस्था में मलाशय की शिराएं अंदर और बाहर की फूल जाती है और वह टेढ़ी- मेढ़ी हो जाती है, साथ ही वहां की त्वचा कड़ी और संकुचित होकर उस पर अंगूर जैसे मस्से हो जाते हैं.

बवासीर का मतलब है गुदा के अंदर की खून की नसों का बड़ा होना, जिनसे खून रिसने की संभावना बनी रहती है. जिन लोगों को कब्ज की शिकायत अधिक रहती है, उन लोगों में बवासीर ज्यादा पाई जाती है. ऐसे लोगों को दस्त के लिए जोर लगाना पड़ता है. इससे गुदा के अंदर की खून की नसें फूलने लगती है.
बवासीर तीन प्रकार की होती है-
1 .बाह्य बवासीर (External Piles )
2 .आंतरिक बवासीर (Internal piles )
3 .मिश्रित बवासीर (Combined piles )
बवासीर रोग होने के कारण-
* अधिक निकम्मे बैठे रहना अर्थात ज्यादा विश्राम करना.
* पुराने कब्ज यानी बहुत दिनों से कब्ज की समस्या बनी रहना.
* मूत्राशय में पथरी बनने के कारण.
* ज्यादा धूम्रपान, शराब आदि का सेवन करना.
* बुजुर्गों में प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ जाने के कारण.
* गर्भावस्था के कारण
* गर्भाशय का अपने स्थान से खिसक जाने से.
* यकृत में विकृति उत्पन्न होने पर.
* पोर्टल रक्त प्रवाह में रुकावट.
* मलाशय का कैंसर.
* पैतृक परंपरा भी इस रोग में सहायक होते हैं. यानी पिता या दादा, माँ या नानी ( महिलाओं में ) को हो तो भी यह रोग होने की संभावना अधिक होती है.
* रेक्टल ग्रोथ अथवा अल्सरेशन.
* पेल्विक ट्यूमर ( महिलाओं में )
श्वेत प्रदर ( ल्यूकोरिया ) होने के कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय
हालांकि बवासीर के मूल कारणों पर आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक अभी तक कोई सर्वमान्य एक राय नहीं बना पाए हैं. बवासीर पर अपने गहन अध्ययन अनुसंधान कार्यों के आधार पर अलग-अलग विद्वानों के लिए अलग-अलग राय पेश की है. जैसे कि कुछ विशेषज्ञ बवासीर रोग के लिए अनुवांशिक कारणों को जिम्मेदार मानते हैं, इन वैज्ञानिकों का कहना है कि घर के अन्य सदस्यों में एक साथ देखा जाता है और उनकी अगली पीढ़ी में भी इस रोग के होने की संभावना अधिक रहती है. इसलिए इस रोग का कोई ना कोई सूत्र अनुवांशिक संरचना के साथ अवश्य जुड़ा है. यद्यपि अभी तक विशेषज्ञ इसके लिए जिम्मेदार किसी विशेष जीन की नहीं कर पाए.
दूसरे कुछ अन्य चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि शरीर में कुछ संरचनात्मक विकारों ( जन्मजात ) के कारण भी बवासीर के होने की संभावना अधिक हो जाती है. इन विशेषज्ञों का तर्क है कि कुछ लोगों में जन्म से ही गुदा द्वार के निचले भाग में दो स्थानों पर रक्त शिराओं का सघन जाल सा बिछा रहता है. ऊपर का जाल गुदाद्वार से लगभग 1 इंच की दूरी पर स्थित रहता है, जबकि नीचे की शिरा जाल गुदाद्वार के बिल्कुल नजदीक स्थित रहता है. इसलिए जब किन्ही कारणों से इन रक्त शिराओं से बने जाल पर दबाव बढ़ जाता है या फिर उनमें चोट आदि लग जाने से स्थानीय शोथ उत्पन्न हो जाता है. तब इन रक्त शिराओं में रक्त का प्रवाह रुक सा जाता है जिसके कारण उनमें रक्त का संचय बढ़ने लगता है जो बाद में बवासीर रोग का कारण बनता है.
इसी तरह कुछ लोगों में ऐसा देखा गया है कि जब मल विसर्जन के समय गुदाद्वार की मांस पेशियों के मल के दबाव से निरंतर फैलने या सिकुड़ते रहने से गुदा द्वार पर स्थित सुपिरियर रेक्टल नस पर भी निरंतर दबाव बना रहता है तो उनमें रक्त के संचय होने की संभावना अधिक हो जाती है.
ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि गुदा के आसपास स्थित शिराओं की कुछ शाखाओं में शिरा कपाट नहीं होते हैं, जिसके फल स्वरुप द्विपाद प्राणियों में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण उदर से निकले भाग की रक्त शिराओं में रक्त का दबाव नीचे की ओर अधिक बना रहता है, यानि रक्त शिराओं में हृदय की ओर प्रवाहित हो रहे रक्त को इस गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध कार्य करना पड़ता है, जिससे शिराओं के थोड़े से विकार से ही उस में रक्त का संचार होने की संभावना बढ़ जाती है.
कुछ महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान बवासीर के मस्से बनने लगते हैं, दरअसल ऐसा इसलिए होता है कि उनके पेट में विकसित हो रहे भ्रूण के कारण उदर और गुदा मार्ग की कुछ रक्त शिराओं पर दबाव बढ़ जाता है, परिणाम स्वरूप गुदाद्वार की कुछ शिराओं में रक्त का अतिरिक्त जमाव होने लगता है.
बवासीर के अधिकांश रोगियों में एक खास बात विशेष रूप से देखी जाती है कि उन्हें पुरानी सख्त कब्ज की शिकायत रही होती है, इन लोगों में भूख सही रूप में न लगने और पेट में निरंतर भारीपन बने रहने की शिकायत रहती है. इसके अतिरिक्त बवासीर के अधिकांश रोगियों में देखा गया है कि उन्हें मल शुष्क और कठोर अवस्था में आता है. इसी आधार पर अब ऐसा माने जाने लगा है कि बवासीर रोग की उत्पत्ति में कब्ज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. पुरानी सख्त कब्ज की दशा में जब आंत में भरा मल शुष्क होता रहता है तो वह मलाशय में पहुंचकर उसकी रक्त शिराओं पर निरंतर दबाव बनाए रखता है. साथ ही इस शुष्क मल को गुदाद्वार से बाहर निकालने के लिए जब मल विसर्जन के समय जोर लगाया जाता है तब इन शिराओं पर दबाव बहुत अधिक हो जाता है और रोगी में बवासीर के लक्षण प्रकट होने लगते हैं.
बवासीर की उत्पत्ति में व्यक्ति द्वारा सेवन किए जाने वाले आहार की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. ऐसा देखा गया है कि गर्म, गरिष्ठ, भारी और बासी भोजन करने रेशा रहित खाद्य पदार्थों, अचार, परिष्कृत भोजन, मांस- मछली, अंडे और शराब के निरंतर सेवन से व्यक्ति में कब्ज की स्थिति और गंभीर हो जाती है. जिसके फलस्वरुप या या तो मलद्वार के मस्सों की पीड़ा को और ज्यादा पीड़ादायक बना देते हैं या बवासीर के लक्षणों को पुनः प्रकट कर देते हैं.
अनेक अध्ययनों से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है कि जो लोग अपने आहार में रेशेदार साग- सब्जियों, फल, चोकर युक्त अनाज का सेवन करते रहते हैं और दिन भर में पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ पानी आदि का सेवन करते रहते हैं उनमें बवासीर के होने की संभावना बहुत कम हो जाती है. इसके विपरीत मांसाहारी लोगों विशेषकर जो लोग मछली और शराब का सेवन निरंतर करते रहते हैं उनमें बवासीर होने की संभावना कई गुना अधिक हो जाती है.
कब्ज के अतिरिक्त अतिसार यानी डायरिया, पेचिश और अल्सर कोलाइटिस आदि रोगों के कारण भी बवासीर होने की संभावना अधिक हो जाती है. इसके अलावा हृदय रोगों, मलाशय के कैंसर, सगर्भ, गर्भाशय, यकृत सिरोसिस आदि रोगों की दशा में भी बवासीर होने की संभावना ज्यादा रहती है. इन सभी दशाओं में मलाशय की शिराओं में रक्त के हृदय की ओर लौटने की गति धीमी पड़ जाती है.
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बाह्य बवासीर-
यह गुदाद्वार के चारों ओर की त्वचा में लंबी और गहरी लाल रंग की सिकुड़ने के रूप में प्रकट होते हैं. सामान्य अवस्था में जब यह रिक्त होते हैं तब यह महसूस नहीं होते हैं किंतु प्रकुपित होने पर अर्थात रक्त से भर जाने पर यह फूल जाते हैं और प्रत्येक शिराओं का अंतिम भाग एक छोटा सा अंगूर अथवा गांठ जैसा प्रतीत होने लगता है. इसके चारों ओर फाइब्रस टिशु होता है. फाइब्रस टिशु का आकार बढ़ने पर यह एक कठोर गांठ की भांति प्रतीत होने लगता है.
बाह्य बवासीर के लक्षण-
शिराओं के प्रकुपित ना होने पर- रोगी को खुजली तथा भारीपन महसूस होता है.
शिराओं के प्रकुपित होने पर-
* बवासीर छोटे-छोटे अर्बुदों की भांति करें महसूस होते हैं.
* इनका रंग कुछ पीला सा होता है.
* दर्द होती है और अर्बुदों को दबाने से रोगी को अत्यधिक कष्ट होता है.
* रोगी आराम से चलने- फिरने में असमर्थ रहता है और बैठने में भी कष्ट होता है.
* शिरा के भीतर खून जमकर घनास्र बन जाता है, जिससे शिरा का अंतिम भाग फुल जाता है.
* इस प्रकार के बवासीर में किसी प्रकार का रक्त नहीं निकलता है, इसलिए इसे सामान्य भाषा में बादी बवासीर कहते हैं.
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आंतरिक बवासीर-
इस प्रकार के बवासीर गुरुद्वार तथा गुद संकोचनी से ऊपर मलाशय के अंतिम भाग में होते हैं और श्लेष्मिक कला से ढके होते हैं.
आंतरिक बवासीर होने के कारण-
* यह 50 से 60 वर्ष की आयु में अधिक मिलते हैं.
* पुरानी कब्ज इसका मुख्य कारण होता है.
* यकृत में रक्त परिवहन में अवरोध.
* गर्भावस्था के अर्बुद.
* पेल्विक शोथ आदि दशाएं बवासीर रोग को उत्पन्न करती है.
* ब्लड प्रेशर बढ़ने से भी बवासीर की उत्पति हो सकती है.
* कुछ रोगियों में इसका अनुवांशिक प्रभाव भी देखा जाता है.
यह बवासीर दो प्रकार के देखने में आते हैं.
1 .लंबे आकार वाले बवासीर- ऐसे बवासीर श्लेष्मिक कला से ढके होते हैं. इनका रंग पीला अथवा कुछ काले रंग का होता है. प्रत्येक बवासीर नीले अंगूर के दाने की भांति चमकता है. इन बवासीरों के बीच रिक्त स्थान में मल जमा हो जाता है. इन बवासीरों से रक्त प्रवाह कम होता है.
2 .गोल आकार वाले बवासीर- ऐसे मस्से श्लेष्मिक कला से एक पतले डंठल के समान जुड़े होते हैं. यह चिकने नहीं होते हैं. इन बवासीरों से रक्त प्रवाह अधिक होता है.
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आंतरिक बवासीर के लक्षण-
* जब तक शिरा प्रकुपित नही होता है तब तक रोगी को कोई असुविधा महसूस नहीं होती है.
* मलद्वार के भीतर कुछ भारीपन एवं खुजली महसूस होती है.
* समय-समय पर खून निकलता रहता है. किसी- किसी को जब यह अधिक बढ़ जाती है तो रोजाना खून निकलने की समस्या हो जाती है.
जब पूरा बवासीर फुल कर बाहर निकल आता है ऐसी स्थिति में-
1 .रोगी को बहुत कष्ट होने लगता है रोगी को चलने अथवा बैठने में भी काफी कष्टों का सामना करना पड़ता है.
2 .थोड़े बहुत समय के पश्चात इनसे रक्त अवश्य निकलता रहता है. पहले केवल मल त्याग के समय अथवा उसके पूर्व कुछ रक्त आता है किंतु कुछ समय के पश्चात अधिक रक्त आने लगता है.
3 .खून के अधिक निकालने से रोगी में दुर्बलता तथा एनीमिया के लक्षण उपस्थित होने लगते हैं. रोग जितना अधिक पुराना होता है उतना ही अधिक खून निकलता है और रोगी उतना ही जल्दी दुर्बल एवं एनीमिया का शिकार हो जाता है.
4 .बवासीर में जलन, टपकन, अकड़न तथा काट फेंकने जैसी दर्द होती है.
5 .बवासीर का रोगी मलावरोध से सदैव दुखी सा रहता है, उसको कभी पतले दस्त आते ही नहीं हैं और दस्तों में भी रक्त आता ही रहता है. मल त्याग के समय दर्द होता है.
6 .रोगी की गुदा चारों तरफ से लाल सी हो जाती है. गुदा में दर्द, जलन और खुजली होती है.
7 .रोगी के जोड़ों में टूटने जैसा दर्द होता है. उठने- बैठने में उसके जोड़ चटकते हैं, उसकी जांघों में भी पीड़ा रहती है.
8 .पेट साफ ना रहने से रोगी की भूख खत्म हो जाती है.
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बवासीर रोग पर सामान्य अध्ययन-
बवासीर के रोगी में मल त्याग के समय कष्ट होना, गुदा नलिका में मल त्याग के बाद या मल त्याग के समय असहनीय जलन, टपकन, खुजलाहट होती है. दस्त के साथ मिश्रित होकर खून का आना, गुदाद्वार पर मस्से का बन जाना आदि कुछ ऐसे प्रमुख लक्षण है. जिनके आधार पर कोई भी व्यक्ति इस रोग का अंदाजा आसानी से लगा लेता है. यद्यपि चिकित्सा शास्त्रियों ने बवासीर को उसके लक्षण और दर्द की तीव्रता के आधार पर दो प्रकारों में बांटा है, यथा 1 . बादी बवासीर और 2 . खूनी बवासीर ( इसे आंतरिक बवासीर के नाम से भी जाना जाता है )
बादी बवासीर की अवस्था में खून की शिराएं अपने अंदर खून के प्रवाह की गति धीमी हो जाने के कारण कुछ स्थानों पर फूल जाती है. वहां छोटे मस्सों का रूप ले लेती है. बवासीर की अवस्था में प्रायः खून का स्राव नहीं देखा जाता है. लेकिन बवासीर रोग के अन्य लक्षण जैसे जलन, दर्द, गुदा नलिका के अंदर भारीपन या चुभन आदि मौजूद हो सकते हैं. इसके विपरीत खूनी बवासीर रोग की वह अवस्था है जिसमें खून की शिराओं में रक्त का प्रवाह लगभग अवरोध हो जाता है जिससे खून के अतिरिक्त संचय के कारण सिरा ज्यादा आकार में फ़ैल कर बड़े मस्से का आकार ले लेती है. बवासीर की इस अवस्था में प्रायः मल त्याग के समय मस्से मल की रगड़ से कट जाते हैं. जिसके कारण अक्सर उनसे खून का स्राव होता रहता है. इसलिए रोग की इस अवस्था को खूनी बवासीर के नाम से जाना जाता है. यद्यपि मलद्वार से रक्त का स्राव बवासीर के अलावा कई अन्य कारणों से भी हो सकता है अतः रोग के निदान के समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए.
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चिकित्सा की दृष्टि से बवासीर रोग का विभाजन-
चिकित्सा की दृष्टि से बवासीर को उसके मस्सों के स्थान और प्रकार के आधार पर भी विभाजित किया गया है. आधुनिक वैज्ञानिक अध्ययन से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है कि बवासीर की प्रति अवस्था में रक्त शिराओं का प्रसार होता है या मस्से बनते हैं चाहे वह सामान्य रूप में दिखाई दे या नहीं अथवा उनसे खून का स्राव हो या नहीं. अध्ययनों से पता चला है कि बाह्य बवासीर के मस्से एपिडर्मिस त्वचा से ढके रहते हैं जबकि आंतरिक बवासीर के मस्से श्लेष्मिक झिल्ली के नीचे उपस्थित रहते हैं. बवासीर के इन दोनों प्रकार के मस्सों का आपस में गहरा संबंध होता है. दरअसल गुदा मार्ग पर स्थित रहने वाली मलाशयी जालिका में गहरा संबंध होता है. जिससे इन दोनों प्रकार के बवासीर में भी गहरा संबंध स्थापित हो जाता है. बवासीर की यह संयुक्त अवस्था ही अधिकांश रोगियों में देखने को मिलती है. इस अवस्था में रोगी के गुदाद्वार के अंदर और बाहर एक या एक साथ अनेक मस्से उत्पन्न हो जाते हैं. चाहे इस दशा में सभी रोगियों को मलद्वार से खून का स्राव ना हो पर अन्य प्रमुख लक्षण जैसे कि असहनीय जलन और दर्द आदि मौजूद रहते हैं. बवासीर की यह अवस्था ही अधिकांश रोगियों में देखने को मिलती है.
बवासीर के कुछ रोगियों में रोग की एक और अवस्था भी देखने को मिलती है. इन रोगियों में बवासीर के तो कोई स्पष्ट लक्षण नहीं दिखाई देते हैं. लेकिन इन लोगों को प्रायः मल- मूत्र विसर्जन के पश्चात अपने गुदाद्वार और मलाशय में तीव्र जलन एवं खुजली का एहसास होता है. कुछ रोगियों में गुदा नलिका कि यह जलन मल त्याग के समय कुछ घंटे तक ही परेशान करती है, जबकि कुछ रोगियों की गुदा नलिका के साथ मूत्र नलिका में भी जलन की अनुभूति होती है. कुछ अनुसंधानकर्ता रोग की इस अवस्था को बवासीर की पूर्व अवस्था के रूप में लेते हैं.
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अध्ययन कर्ताओं ने बवासीर को उसकी अवस्था और लक्षणों के आधार पर तीन रूपों में विभाजित किया है. जैसे-
1 .साधारण या प्रथम अवस्था-
इस अवस्था का रूप कुछ सौम्य प्रकार का होता है. रोगी के गुदा द्वार के अंदर अथवा बाहर छोटे-छोटे एक या कुछ मस्से बन जाते हैं. बवासीर के बहुत से रोगियों में केवल आंतरिक मस्से ही उत्पन्न होते हैं, जबकि उनके गुदा द्वार के बाहर मस्सों का कोई निशान दिखाई नहीं देता है. ऐसे रोगियों को अपनी गुदा नलिका में विशेषकर मल विसर्जन के समय असहनीय जलन या दर्द होती है, जबकि कुछ रोगियों में मल विसर्जन के समय मल के साथ कुछ मात्रा में खून निकल सकता है. रोगी की प्रारंभिक अवस्था में खून का यह स्राव अल्प मात्रा में और केवल मल त्याग के समय ही होता है. लेकिन जैसे-जैसे यह रोग पुराना होता जाता है वैसे- वैसे रक्त स्राव की मात्रा बढ़ती जाती है. रक्त का यह स्राव एक-दो दिन या लगातार कुछ दिनों तक आकर खुद ही रुक सकता है या फिर कुछ रोगियों में निरंतर कुछ महीनों या बरसों तक भी जारी रह सकता है.
2 .मध्यम या द्वितीय अवस्था-
इस अवस्था में गुदा नलिका के आसपास स्थित खून की शिराओं के अधिक फैल जाने से मस्सों का आकार काफी बड़ा हो जाता है. मल त्याग के समय या उसके पश्चात रोगी को पीड़ा और जलन की अनुभूति भी बढ़ जाती है. साथ ही मस्सों का आकार बढ़ जाने के कारण वह मल त्याग के समय मल के दबाव से गुदाद्वार से बाहर आने लगते हैं. शुरू में तो इन मस्सों का कुछ भाग ही बाहर आता है और वह भी केवल मल त्याग के समय पर यह मस्से मल त्याग के पश्चात या तो स्वयं अंदर लौट जाते हैं या फिर उन्हें अंगुली के हल्के दबाव से गुदा के अंदर किया जा सकता है. मस्सों का गुदाद्वार से बाहर आना प्रोलेक्स ऑफ हीमेराइड्स के नाम से जाना जाता है. कुछ अध्ययन में देखा गया है कि बवासीर की प्रथम और दूसरी अवस्था मस्सों का आकार खानपान और आहार- विहार में थोड़ा सुधार कर लेने पर कम हो जाती है यानी कि बवासीर के लक्षण अपने आप ही खत्म हो जाते हैं. लेकिन खानपान और आहार- विहार में लापरवाही बरतने पर रोग के लक्षण फिर से प्रकट होने लगते हैं.
3 .गंभीर या तृतीय अवस्था-
बवासीर की यह तीसरी अवस्था सबसे जटिल और गंभीर अवस्था है. इसमें मलाशयी शिराओं में रक्त के अत्यधिक संचय से मस्सों का आकार बहुत बढ़ जाता है. जिसके कारण बड़े आकार के यह मस्से सदैव द्वार के बाहर ही लटकते रहते हैं. यही कारण है कि बवासीर की प्रथम अवस्था की बजाय द्वितीय तृतीय अवस्था में गुदा द्वार के स्थानीय संक्रमण की संभावना काफी बढ़ जाती है. इसलिए रोग की अवस्था सर्वाधिक कष्टदायक होती है. इस अवस्था में रोगी को गुदा मार्ग में पीड़ा के साथ सदैव भारीपन भी महसूस होने लगता है और गुदा द्वार की म्यूकस का स्राव भी हो सकता है. म्यूकस का यह स्राव मस्सों को स्तरित ( चिकनाहट ) करने वाली श्लेष्मिक झिल्ली यानी म्यूकस मेंब्रेन से उत्पन्न होता है.
बवासीर की यह तीसरी अवस्था सबसे गंभीर अवस्था है. इसमें अन्य लक्षणों के साथ रोगी को गुदा में बेचैन कर देने वाली जलन या खुजली भी हो सकती है. इस अवस्था में कभी-कभी तो रोगी भली-भांति प्रकार से ना तो मल विसर्जन कर पाता है और ना ही ठीक प्रकार से बैठ या खड़ा हो पाता है यानी एक जगह बैठने या खड़े होने से भी उसकी परेशानी बढ़ जाती है. रोग की पीड़ा से परेशान अनेक रोगियों को मल त्याग के बाद कई घंटों तक निरंतर चक्कर काटते हुए देखा जाता है.
बवासीर के ज्यादातर रोगियों को कब्ज की शिकायत रहती है. इसी कारण उन्हें मल विसर्जन के समय कठोर और शुष्क मल आता है. शुष्क मल की रगड़ से अक्सर उनके मस्से कटते- फटते रहते हैं. इससे मस्से घातक बन जाता है एवं अनियंत्रित खून का स्राव होता रहता है. इससे उनकी पीड़ा तो बढ़ती ही है साथ ही उनमें निरंतर लंबे समय तक रक्त का स्राव होते रहने से धीरे-धीरे तीव्र रक्ताल्पता की दशा भी उत्पन्न हो जाती है. रक्ताल्पता के कारण अनेक रोगियों में सख्त कमजोरी और निम्न रक्तचाप जैसे लक्षण भी पैदा होने लगते हैं. इस प्रकार के पुराने रोगियों का चेहरा प्रायः पीला, निस्तेज और निराशा युक्त पाया जाता है. बवासीर के कुछ पुराने रोगियों में अत्यधिक रक्तस्राव के कारण हीमोग्लोबिन का स्तर 4 ग्राम प्रति 100 मिलीलीटर रक्त ( हीमोग्लोबिन का सामान्य स्तर 12 से 14 के बीच होता है ) तक रह जाता है.
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बवासीर का आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपचार-
1 .करंजादि बटी- कंजा फल का छिलका, चिताउर, सेंधा नमक, सोठ, इंद्रजौ, अरलू का छाल इनका क्वाथ या चूर्ण छाछ के साथ लेने से रुधिर सहित बवासीर के अंकुर खत्म हो जाते हैं.
2 .रसोन बटी- रसौत, निबोरी की मींगी, कलमी शोरा तीनों को बराबर मात्रा में लेकर पीसकर मूली के पत्ते के रस में घुटाई कर झरबेरी के बराबर गोली बना लें. इसमें से एक से तीन गोली छाछ या चावल के धोवन के साथ सेवन करें इसके सेवन से खूनी बवासीर, रक्त प्रदर, रक्तपित्त, अतिसार दूर होते हैं.
3 .काकायन बटी- हरड़, जीरा, पीपरामुल, चब्य, चिताउर, सोंठ, काली मिर्च, पीपल 10-10 ग्राम, जवाखार 80 ग्राम, शुद्ध भिलावा 320 ग्राम, जिमीकंद 640 ग्राम, सबके दुगना पुराना गुड़ लेकर सभी चीजों को कूट पीसकर 3-3 ग्राम की गोली बना लें. अब इसमें से दो से चार गोली पानी के साथ सुबह-शाम सेवन करें. इसके सेवन से सभी प्रकार के बवासीर खत्म हो जाते हैं और भूख भी अच्छी लगती है. यह सभी तरह के बवासीर के लिए रामबाण औषधि है.
4 .त्रिफलादि बटी- 10 ग्राम त्रिफला चूर्ण, 10 ग्राम रसौत, 10 ग्राम एलुवा और 10 ग्राम निबोरी की मींगी सभी को महीन पीसकर कुकरोंदा बूटी के रस में घोटकर मटर के बराबर गोली बना लें. अब इसमें से दो से चार गोली जल के साथ सेवन करें. यह खूनी व बादी दोनों ही प्रकार के बवासीर को खत्म कर भूख लगाती है.
5 .हल्दी का चूर्ण थूहर के दूध में मिलाकर लगाने से बवासीर के मस्से खत्म हो जाते हैं.
6 .पीपल, सेंधा नमक, कूठ, सिरस के बीज थूहर या अकवन के दूध में पीसकर लगाने से मस्से खत्म हो जाते हैं.
7 .4 ग्राम की मात्रा में काले तिल ठंडे पानी के साथ सुबह खाली पेट सेवन करने से बवासीर नष्ट होता है और दांत भी मजबूत होता है.
8 .काशीशादी तेल को सींक से मस्सों पर लगाने से क्षार की तरह मस्से झड़ जाते हैं और रोगी को कोई नुकसान भी नहीं होता है.
9 .भांग की पत्ती की धूनी बवासीर के दर्द को दूर करती है.
10 .गेंदा की पत्ती की टिकिया भी बवासीर के दर्द में फायदेमंद होता है.
11 .अफीम तथा कुचला के पाउडर को मस्सों पर लगाने से दर्द दूर होता है.
12 .बैरोजा 300 मिलीग्राम और गुलाबी फिटकरी 300 मिलीग्राम दोनों को एक चम्मच चीनी में मिलाकर खाने से बवासीर, योनि तथा रक्तपित्त का रक्त तुरंत बंद हो जाता है.
13 .जंगल गोभी का रस, काली मिर्च तथा मिश्री मिलाकर पीने से शरीर के किसी भी हिस्से से खून आना तुरंत बंद हो जाता है.
14 .काले तिलों के कल्क में चीनी मिलाकर खाने से बवासीर से रक्त बहना तुरंत बंद हो जाता है.
15 .अपामार्ग के पंचांग का कल्क चावल के धोवन अथवा दूध के साथ पीने से रक्त आना तुरंत बंद हो जाता है.
16 .निरंजन फल शक्कर मिलाकर पीने से बवासीर का तुरंत बंद हो जाता है.
इसके अलावा योग्य वैध की देखरेख में सोमलक्यादि वटी, सूरन मोदक, बाहुसाल गुड़, अर्श कुठार रस, अभयारिष्ट, अमृत भलान्तक अवलेह, अर्शादि वटी, चंदनासव आदि का सेवन करना बवासीर में लाभदायक होता है.
अनुभव की मोती-
कचनार गूगल दो-दो गोली, गंधक रसायन वटी दो-दो गोली सुबह- शाम और त्रिफला चूर्ण एक चम्मच रात को खाना खाने के बाद गुनगुने पानी के साथ सेवन करने से खूनी एवं बादी दोनों तरह के बवासीर ठीक हो जाते हैं. यह मेरा अपना अनुभव है. इससे हजारों रोगी स्वस्थ हो चुके हैं.
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