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जानिए- 20 प्रकार के योनि रोगों के लक्षण और उसकी चिकित्सा

By : Dr. P.K. Sharma (T.H.L.T. Ranchi)In : Health TipsRead Time : 2 MinUpdated On April 5, 2022

हेल्थ डेस्क- आयुर्वेद की प्राचीन ग्रंथों एवं संहिताओं में योनि रोग नाम से एक अलग अध्याय प्राप्त होता है. योनि रोगों में कुल 20 रोगों की संख्या बताई गई है. योनि से केवल वेजिना का ही ग्रहण नहीं किया जाता है बल्कि योनि से संबंधित संपूर्ण प्रजनन अंगों में पाए जाने वाले रोगों का वर्णन मिलता है. इस प्रकार योनि शब्द से योनिमार्ग, गर्भाशय, गर्भाशय मुख, डिंब वाहिनी तथा डिंब ग्रंथि आदि अंगों का एक साथ बोध होता है. प्रायः सभी प्राणाचार्यो ने योनि रोग के 20 प्रकार ही मानी है. केवल उनके नामों में थोड़ा सा मतभेद है.

जानिए- 20 प्रकार के योनि रोगों के लक्षण और उसकी चिकित्सा

आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में स्थान- स्थान के सूजन को अलग-अलग गिना गया है ग्रंथियों को नहीं. उसी प्रकार कैंसर आदि को भी अलग-अलग दर्शाया गया है.

चरक आदि संहिता के अध्ययन से प्रतीत होता है कि योनि रोगों का वर्णन चरक संहिता में सबसे अधिक और विज्ञान सम्मत प्रतीत होता है. यहां चरक संहिता के अनुसार अन्य संहिताओं में वर्णित योनि रोगों को तुलनात्मक ढंग से बता रहे हैं.

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1 .वातला योनि- इसमें योनि कर्कश, रुक्ष, शीतल, स्तब्ध ,सुई चुभने जैसी वेदना, चींटी के चलने जैसी सुरसुराहट तथा सुन्नता से युक्त होती है. ऐसी महिला को थकावट ज्यादा महसूस होती है. साथ ही महिला को थोड़ा- थोड़ा रुक्ष एवं पतला फेनयुक्त मासिक स्राव होता है.

चिकित्सा- इसकी चिकित्सा में स्नेहन, स्वेदन एवं वस्ति कर्म की आवश्यकता पड़ती है. स्नेहन हेतु योनि में उत्तम वात नाशक तेलों को लगाया जाता है. साथ ही इन्हीं तेलों का पिचू भी धारण किया जाता है. बाहर के पेडू, जांघ, कमर आदि पर भी इन्हीं तेलों की मालिश करनी चाहिए.

स्वेदन हेतु गर्म पानी अथवा वात नाशक औषधिओं के काढ़े अथवा वातनाशक औषधियों से सिद्ध किए गए तेल, घी, दूध आदि में कमर तक महिला को बैठाया जाता है.

गर्म पानी का एनिमा तथा गर्म पानी का स्नान भी फायदेमंद होता है. यदि योनि टेढ़ी-मेढ़ी तथा विषम हो गई हो तो उसे यथा स्थान बैठाकर के पट्टी बांधकर और महिला को शैया ( बेड ) पर पूर्ण विश्राम कराएं.

उपरोक्त चिकित्सा के बाद योनि में वातनाशक तेलों का प्रयोग करें, गुडूच्यादि तेल का लेप या पिचू धारण भी लाभकारी होता है. मांस रस का सेवन कराना फायदेमंद होता है.

2 .पितला योनि- जब योनि में अत्यंत दाह, पाक तथा बुखार के लक्षण होते हैं तब उसे पितला कहा जाता है. इसमें उष्ण तथा नीले, पीले रंग का मासिक स्राव होता है. स्राव गर्म एवं मुर्दे जैसी गंध वाला होता है.

चिकित्सा- इसमें शीतल चिकित्सा करनी चाहिए. एनिमा वस्ति आदि द्वारा शोधन शीतल क्वाथ से योनि का डूश करना चाहिए. वलादि स्नेहन का प्रयोग करना चाहिए वृहत शतावरी घृत का प्रयोग विशेष लाभकारी होता है. इसे एक- दो महीने तक नियमित सेवन कराते रहना चाहिए .साथ ही अन्य लाक्षणिक चिकित्सा की भी व्यवस्था करनी चाहिए.

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3 .श्लेष्मला योनि- इसमें योनि शीतल एवं पिच्छिल रहती है और उसमें खुजली होती है तथा हल्का- हल्का दर्द भी रहती है. इसमें महिला पांडू ( पीला ) वर्ण की हो जाती है. इसके लक्षण पूर्व में वर्णित योनिकंडू के समान होते हैं.

चिकित्सा- इसकी चिकित्सा में योनि का शोधन करना पड़ता है. इसके लिए योनि विशोधिनी वर्ती का उपयोग किया जाता है. चर्बी अथवा गांठ के होने पर उसे गलाया जाता है. इसके लिए अनेक कफ नाशक द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है. साथ ही कफ नाशक भोजन की व्यवस्था की जाती है. इस रोग में उदुम्दिबरा तेल का पिचू धारण कराया जाता है अथवा उदुम्बर कषाय की वस्ति दी जाती है. साथ ही अन्य अस्रावनाशक योगों का स्थानिक व्यवहार किया जाता है.

यदि योनि में हमेशा दर्द रहता हो, योनि कर्कश एवं स्तब्ध हो, स्पर्श सहन न कर सके, मैथुन के समय पीड़ा हो तो कुम्भी स्वेद करना चाहिए अथवा योनि का दर्द नष्ट करने के लिए वात कुलान्तक रस, वात चिंतामणि रस अथवा महायोगराज गुग्गुल की गोलियों का सेवन कराना चाहिए. रास्नादि क्वाथ का सेवन कराना लाभदायक होता है.

जानिए- 20 प्रकार के योनि रोगों के लक्षण और उसकी चिकित्सा

4 .सन्निपातिक अथवा त्रिदोष दूषित योनि- इसमें योनि में दाह, शूल एवं दर्द होती है साथ ही श्वेत पिच्छिल स्राव होता है. इसमें योनि तथा गर्भाशय त्रिदोष मिश्रित लक्षण पाए जाते हैं यह एक असाध्य रोग है.

चिकित्सा- शास्त्रकारों ने इसकी चिकित्सा नहीं बताई है क्योंकि इसकी चिकित्सा में कभी लाभ होता है तो कभी नहीं होता है. इसमें तीनों दोषों की मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिए. बढ़े हुए दोषों की शांति के लिए स्नेहन, स्वेदन लाभकारी है. अम्ल एवं मधुर द्रव्यों को मिलाकर वस्ति कर्म करने से लाभ होता है.

5 .रक्त योनि- आचार्य सुश्रुत ने इसको रुधीराक्षरा के नाम से वर्णन किया है. इसमें योनि से अत्यधिक मात्रा में रक्त का स्त्राव होता है. यह स्राव गर्भावस्था काल में भी होता ही रहता है.

इस रोग को उत्पन्न करने वाले कारण रक्त पित्त के ही होते हैं. आधुनिक विचार से इस रोग को रक्त स्रावी गर्भाशय विकृति कहा जाता है.

चिकित्सा- रक्त प्रदर चिकित्सा के भांति ही इसका चिकित्सा किया जाता है.

6 .अरजस्का- इसका अर्थ होता है बिना रजोधर्म वाली महिला. इसमें योनि तथा गर्भाशय में स्थित पीत आर्तव को दूषित करके मासिक धर्म को रोक देता है. इसमें महिला कृश, विवर्ण तथा रजोधर्म से रहित होती है. वाग्भट ने इसका वर्णन लोहिताक्षरा के नाम से किया है. जबकि सुश्रुत ने इसे वंध्या नाम से वर्णन किया है.

चिकित्सा- इसमें Primary Amenorrhoea तथा Sterility की भांति चिकित्सा करनी चाहिए.

7 .अचरणा- योनि की सफाई न करने से गंदगी के परिणाम स्वरूप उसमें कृमि उत्पन्न हो जाते हैं जिससे योनि में खुजली उत्पन्न हो जाती है. इससे महिला में पुरुष संसर्ग की इच्छा हमेशा बनी रहती है. वाग्भट ने इसे विलुप्ता योनि के नाम से वर्णन किया है. आचार्य सुश्रुत का कहना है कि जो योनि मैथुन करते समय पुरुष के पहले ही स्वखलित हो जाती है उसे अचरणा कहते हैं. इस रोग के लक्षण आदि आधुनिक रोग भगकंडू से मिलते- जुलते हैं.

चिकित्सा- अकरांत स्थान पर वृहती हरिद्रा, दारूहरिद्रा के कल्क का लेप करें. जीवनीयगण की औषधियों से सिद्ध क्षीर का सेवन कराएं. मांस रस से सिद्ध तेलों की उत्तरवस्ति दी जा सकती है.

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8 .अतिचरणा- जो अत्यधिक मैथुन करने पर ही स्वखलित हो उसे अतिचरणा कहते हैं. इसमें अत्यधिक मैथुन के कारण वायु कुपित हो जाती है और वह योनि में सुप्तता, सूजन एवं दर्द उत्पन्न करती है. इसको आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में स्त्री कामोन्माद कहते हैं.

9 .प्राकचरणा- इसका अर्थ यह है कि अवस्था से पूर्व ही मैथुन करना, यदि अत्यंत छोटी अवस्था में मैथुन किया जाता है तो वायु कुपित होकर पीठ, कमर, ऊरु और वंक्षण में दर्द पैदा करती है तथा योनि को दूषित करती है. इसका वर्णन केवल चरक एवं आचार्य सुश्रुत ने ही किया है.

चिकित्सा- इसमें जीवनीयगण औषधियों से सिद्ध घृत की उतरवस्ति दी जाती है.

10 .उपप्लुता- इसमें गर्भावस्था के अंतर्गत श्वेत रंग का श्लेष्मल स्राव मिलता है. यह पीड़ा युक्त होता है और कभी-कभी केवल कफ का ही स्राव होता है. इसका वर्णन चरक एवं वाग्भट ने ही किया है.

चिकित्सा- धातक्यादि तेल से भीगा हुआ रुई योनि में धारण कराया जाता है.

11 .परिलुप्ता- इस प्रकार की योनि में स्पर्शानाक्षमता पाई जाती है. सूजन एवं दर्द के लक्षण मौजूद रहते हैं. योनि से नीला एवं पीला रंग का स्राव होता है. साथ ही नितंब वंक्षण एवं पीठ में काफी पीड़ा होती है. महिला को बुखार भी रहता है. अंग्रेजी में इसको Dyspareunia कहा जाता है.

चिकित्सा- इसमें धातक्यादि तेल अथवा पंचबल्कल कषय से सिद्ध स्नेह का पिचू धारण किया जाता है.

12 .उदावर्ता- इसमें योनि के अंतर्गत अधिक दर्द होता है. साथ ही योनि से रुक- रुककर थोड़ा- थोड़ा रक्त का स्राव होता रहता है. इसमें महिला को फेन युक्त मासिक धर्म कष्ट के साथ होता है. मासिक धर्म के पश्चात महिला को सुख का अनुभव होता है. इस रोग की समानता आधुनिक रोग Spasmodic Dysmenorrhoea से की जा सकती है.

चिकित्सा- इसमें दशमूल से सिद्ध दूध का प्रयोग योनि पिचू, वस्ति एवं खाने के लिए कराया जाता है.

13 .कर्णिनी-  श्लेष्मा एवं रक्त दोष से योनि में कर्णिका के आकार की गाठें उत्पन्न हो जाती है. इससे रक्त के मार्ग का अवरोध हो जाता है जिसके परिणाम स्वरूप Imperforated Hymen तथा Cyrptomenorrhoea Haematocolpos हो सकता है. विद्वानों का कहना है कि इसमें गर्भाशय ग्रीवा के व्रणजन्य सूजन के कारण अथवा जन्मजात अतिवृद्धि के परिणामस्वरुप पैदा होता है.

चिकित्सा- जीवनीयगण से सिद्ध तेल अथवा शोधन द्रव्यों की उत्तरवस्ति दी  जाती है.

14 .पुत्रध्नी- दूषित रज से उत्पन्न गर्भ को रुक्षता के कारण कुपित हुआ वायु बार-बार नष्ट कर देता है. जब भी गर्भधारण होता है तभी गर्भस्राव या गर्भपात हो जाता है. इस रोग की समता आधुनिक रोग पुनः पुनः गर्भपात से की गई है.

चिकित्सा- इस रोग में काशमर्यादि घृत की वस्ति दी जाती है और बंध्या रोग जैसी चिकित्सा की जाती है.

15 .अंतर्मुखी- अत्यधिक भोजन कर लेने के बाद यदि मूर्खतावश विकृत रूप से शयन करके महिला संबंध बनाए तो योनि के बीच में स्थित वायु योनि के मुंह को टेढ़ा कर देता है. इससे योनि के अस्थि, मांस एवं योनि में अत्यधिक पीड़ा होती है और महिला शारीरिक संबंध बनाने में असमर्थ हो जाती है. इसी प्रकार गर्भाशय का भी मुंह टेढ़ा हो जाता है.

चिकित्सा- इसमें योनि को झुकाकर हाथों से यथा स्थान पहुंचा दिया जाता है.

16 .सूचीमुखी- इस रोग को सहज जन्मजात अथवा बीज दोष माना गया है. माता के बीज दोष तथा गलत आहार विहार से रुक्ष हुआ वायु गर्भस्थ कन्या की योनि को दूषित कर देता है. कन्या की योनि सुई की नोक के समान मुख वाली बन जाती है. जिसके परिणाम स्वरूप बड़े होने पर युवावस्था में उसे मैथुन में अत्याधिक कष्ट होता है. साथ ही मासिक धर्म के स्राव के निकलने में भी काफी कठिनाई होती है ऐसी महिला बांझ हो जाती है.

चिकित्सा- इसमें गर्भाशय मुख्य को ऑपरेशन आदि द्वारा चौड़ा किया जाता है और वंध्यत्व दूर करने वाले दवाओं का सेवन कराया जाता है.

17 .शुष्का- शारीरिक संबंध के समय अगर महिला मल के वेग को रोकती है तो उसकी वायु कुपित होकर योनि को सुखी बना देता है. वाग्भट ने शुष्का योनि में पीड़ा का होना बताया है. आचार्य सुश्रुत ने इसका वर्णन ही नहीं किया है.

चिकित्सा- इसमें जीवनीयगण औषधियों से सिद्ध घृत की उत्तरवस्ति दी जाती है.

18 .वामिनी- जिस महिला की योनि गर्भाशय में गए हुए बीज को छह-सात दिन के बाद दर्द के साथ अथवा बिना दर्द के ही गर्भाशय से बाहर निकाल देती है उस योनि को वामिनी योनि कहते हैं.

चिकित्सा- योनि में स्नेह पिचू को धारण कराया जाता है, साथ ही गर्भाधान को अग्रसर करने के लिए त्रिवंग भस्म एवं गर्भपाल रस का सेवन कराया जाता है.

19 .षन्ढी योनि- माता- पिता के बीजदोषों से गर्भस्थ वायु दूषित होकर जनन अंगों की कुरचना उत्पन्न करती है. जिसके परिणाम स्वरूप षन्ढी कन्या उत्पन्न होती है. ऐसी कन्या के बड़े होने पर ना तो उसके स्तन ही बढ़ते हैं और ना ही उसे मासिक स्राव ही होता है. ऐसी महिलाएं पुरुष संसर्ग से द्वेष रखती हैं.

चिकित्सा- इसकी चिकित्सा शास्त्रकारों ने असाध्य बतलाई है यानी इसकी कोई चिकित्सा उपलब्ध नहीं है.

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20 .महा योनि- विषम या दुखदाई शैया पर शयन करके मैथुन कराने वाली महिला की वायु कुपित होकर गर्भाशय एवं योनि के मुख्य को अवरुद्ध कर देती है. जिससे योनि का मुंह खुला रह जाता है. इससे झागदार मासिक स्राव होता है और योनि के भीतर का मांस बढ़ जाता है. ऐसी महिला के वंक्षण एवं संधि में दर्द होती है. यह एक प्रकार का योनि प्राचीर भ्रंश प्रतीत होता है.

चिकित्सा- इसमे दशमूल से सिद्ध क्षीर की उत्तरवस्ति दी जाती है. मधुर द्रव्यों से सिद्ध घृत से योनि का पूरण किया जाता है. यदि अंग ढीला होकर नीचे लटकने लगा हो तो घृत से अभ्यंग, दूध से शिचन यानी दूश देना और स्वेदन करके उसे अंदर प्रविष्ट कराया जाता है. साथ ही अन्य वात नाशक चिकित्सा का अवलंबन किया जाता है.

नोट- यह लेख शैक्षणिक उद्देश्य से लिखा गया है अधिक जानकारी एवं किसी भी प्रयोग से पहले योग्य चिकित्सक की सलाह जरूर लें. धन्यवाद.

स्रोत- स्त्री रोग चिकित्सा पुस्तक से.

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The information given on this website is based on my own experience and Ayurveda. Take the advice of a qualified doctor (Vaidya) before any use. This information is not intended to be a substitute for any therapy, diagnosis or treatment, as appropriate therapy according to the patient's condition may lead to recovery. The author will not be responsible for any damage caused by improper use. , Thank you !!

Dr. P.K. Sharma (T.H.L.T. Ranchi)

मैं आयुर्वेद चिकित्सक हूँ और जड़ी-बूटियों (आयुर्वेद) रस, भस्मों द्वारा लकवा, सायटिका, गठिया, खूनी एवं वादी बवासीर, चर्म रोग, गुप्त रोग आदि रोगों का इलाज करता हूँ।

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