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रक्त प्रदर रोग होने के कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय

By : Dr. P.K. Sharma (T.H.L.T. Ranchi)In : Health TipsRead Time : 1 MinUpdated On May 6, 2022

हेल्थ डेस्क- रक्त प्रदर लड़कियों व महिलाओं में होने वाला रोग है. जिसे प्रदर, रक्त प्रदर, बहुलार्तव, दुष्टार्तव, योनिलोहितक्षरा, असृग्धर आदि नामों से जाना जाता है. इस लेख में रक्त प्रदर होने के कारण, लक्षण और घरेलू एवं आयुर्वेदिक उपाय के बारे में बताएँगे.

रक्त प्रदर रोग क्या है ?

मासिक धर्म या उसके अतिरिक्त समय में योनि से अत्यधिक मात्रा में अधिक समय तक रक्त स्राव का होना अत्यार्तव अथवा असृग्धर कहलाता है. आचार्य सुश्रुत ने भी कहा है कि मासिक धर्म के दौरान यदि योनि से रक्त अधिक मात्रा में निकले अथवा मासिक धर्म के बाद अतिरिक्त समय में भी रक्त स्राव पाया जाए तो उसे असृग्धर कहते हैं इसमें आर्तव रक्त के ही लक्षण होते हैं.

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रक्त प्रदर रोग होने के कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय
रक्त प्रदर रोग होने के कारण, लक्षण और आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय

इसमें अधिक मात्रा में तथा अधिक दिनों तक मासिक स्राव होता रहता है. सामान्य मासिक धर्म 3 से 5 दिन तक रहता है लेकिन इसमें 7-8 दिन तक रह सकता है. एक मासिक धर्म के प्रारंभ से लेकर दूसरे मासिक धर्म के प्रारंभ तक इतना ही अंतर रहता है जितना कि सामान्य मासिक धर्म में अर्थात आवर्तीता में कोई अंतर नहीं होता. इस रोग में आर्तव चक्र ठीक रहता है लेकिन उसका समय पर आर्तव की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती है जो नियमित समय से बहुत दिनों तक आता रहता है.

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संप्राप्ति- जो महिलाएं अम्ल, लवण, कटु, रसयुक्त एवं अस्निग्धता युक्त आहार विचार रहित होकर करती है उसकी रक्त धातु की मात्रा स्वाभाविक से अधिक पैदा होकर शरीर में वायु और पीत को कुपित करती है. यह दोनों कुपित होकर उसी बढे हुए रक्त को गर्भाशय की बारीक़ नलिकाओं में ले जाकर रक्त प्रदर की उत्पत्ति करते हैं.

आवश्यक स्पष्टीकरण-

असृग्धर को रक्त प्रदर भी कहते हैं. पाश्चात्य ग्रंथों में भी रक्त की प्रचुरता तथा उसकी दीर्घकाल तक प्रवृत्ति के आधार पर ही इस पर विचार किया जाता है. इसके लिए वहां दो नामों का व्यवहार किया जाता है. जब आर्तव ( रक्तस्राव ) की प्रवृत्ति अधिक मात्रा में होते हुए भी आर्तवकाल की स्वाभाविक अवधि यानी 2 से 7 दिन तक की होती है तो उसे मेनोरेजिया कहते हैं. लेकिन जब आर्तव ऋतुकाल के अतिरिक्त काल में भी होता है तो उसे मेट्रोरेजिया कहते हैं

आयुर्वेद में इन दोनों के लिए सामान्यतः असृग्धर शब्द का ही व्यवहार किया जाता है क्योंकि दोनों अवस्थाएं परस्पर संबंधित रहती है. स्राव अधिकता उत्पन्न करने वाले कारण ही कुछ दिन बाद काल में वृद्धि अथवा अनियमितता भी उत्पन्न कर देती हैं.

रक्त प्रदर होने के क्या कारण हैं ?

रक्त प्रदर होने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं जैसे-

1 .भोजन- गुरु ( भारी ) विदाही, अम्ल, मध् तथा सिरके आदि के अतिरिक्त सेवन से रक्त प्रदर की उत्पत्ति होती है.

2 .अधिक शारीरिक संबंध बनाना- अधिक शारीरिक संबंध बनाना रक्त प्रदर को उत्पन्न करने में सहायक होता है. अधिक शारीरिक संबंध के कारण महिलाओं की जननेंद्रिय की ओर रक्त प्रवाह बढ़ जाता है जो आर्तवस्राव भी अधिकतर आता है. नवविवाहिता महिला में अधिक शारीरिक संबंध बनाने से यह अवस्था उत्पन्न हो सकती है.

3 .गर्भपात- प्रसव के उपरांत साधारणतया अपरा आदि गर्भ के सब अंग बाहर निकल जाते हैं. जिससे गर्भाशय अपनी पूर्व स्थिति में आ जाता है. लेकिन जब अपरा का कुछ भाग अंदर रह जाता है तो वह अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आता है. जिससे वह मृदु एवं स्थूल हो जाता है एवं रक्ताधिक्य के कारण उससे रक्तस्राव हुआ करता है. यह स्थिति प्रायः गर्भपात कराने के कारण होती है.

4 .यानाध्व- घोड़ा, ऊंट, साइकिल आदि की अधिक सवारी करना, अधिक नृत्य करना, जिमनास्टिक, साइकिल की सवारी, शिकार करना आदि कारण बताया गया है.

5 .शोक- मद, काम, क्रोध, चिंता से मानसिक उत्तेजनाए होती है इससे शरीर के अंतः स्रावों में वृद्धि होकर रक्तभार यानी ब्लड प्रेशर स्थायी रूप से बढ़ जाता है इसके परिणाम स्वरूप गर्भाशय में रक्ताधिक्य होकर अत्यार्तव की उत्पत्ति होती है.

आधुनिक ग्रंथ कारों ने असृग्धर को रोग न मानकर अत्यार्तव शब्द से इस लक्षण का वर्णन किया है और कारणों को अनेक भागों में बांटा है. हेनरी जिलेट ने इसके संपूर्ण कारणों को चार बड़े भागों में बांटा है.

1 .प्रजनन संस्थान का कारण- कोई भी कारण जो गर्भाशय में रहकर वहां रक्ताधिक्य उत्पन्न करें वह अत्यार्तव उत्पन्न कर सकता है. जैसे- गर्भाशय कलाशोथ, गर्भाशय तथा बीज ग्रंथि के अर्बुद, अपरा के अवशेष तथा गर्भाशय का हीनसंवरण, गर्भाशय का जीर्णशोथ एवं पालीपस, गर्भाशय का रिट्रोवर्शन, गर्भाशय का संकोचवर्तन तथा डिंब वाहिनी- डिम्बकोष शोथ.

2 .रक्तवह संस्थानगत कारण- रक्त भार की वृद्धि करने वाले सब कारण अत्यार्तव उत्पन्न करते हैं. जैसे वृक्क तथा हृदय रोग, यकृदाल्युदर तथा श्वसनीशोथ, ह्रदय कपाट के रोग, उच्च रक्तचाप, धमनी दाढर्य तथा फुफ्फुस का एम्फिसीमा.

3 .वात नाड़ी संस्थान कारण- अत्यधिक शारीरिक संबंध, अतिउष्ण जल में स्नान तथा भावावेश से प्रत्यावर्तन क्रिया के द्वारा अतिआर्तव ( रक्त प्रदर ) की उत्पत्ति होती है.

4 .अंतः स्रावी ग्रंथिगत का कारण- बीज ग्रंथि तथा थायराइड ग्रंथि का अत्यधिक अंतः स्राव अत्यार्तव को उत्पन्न करता है.

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5 .संक्रामक रोग- आंतरिक ज्वर ( टाइफाइड बुखार ) फ़्लू, स्कारलेट फीवर, मलेरिया आदि रोगों के कारण भी अत्यार्तव हो जाता है.

नाचना, शिकार खेलना, देर तक साइकिल चलाना, अत्यधिक भय तथा उद्वेग एवं ताप का सहसा परिवर्तन अत्यार्तव की उत्पत्ति का कारण हो सकता है.

इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रमुख कारण श्रोणिगुहा की विक्षति है. अतः अत्यार्तव के रोगी में श्रोणिगुहा की पूरी परीक्षा करनी चाहिए. अन्य कारणों में रक्त की विकृति एवं अधिक श्रम भी है. जब कोई कारण स्पष्ट रूप से ना मिले तो हार्मोन का भी विक्षोभ समझा जाता है. फिर भी श्रोणिगुहा के उत्तकों के अत्यल्प संक्रमण का सदैव ध्यान रखना चाहिए.

रक्त प्रदर रोग के लक्षण क्या है ?

इस रोग में महिला को अधिक मात्रा में कई- कई दिनों तक मासिक स्राव समय- असमय निकलता रहता है. मासिक स्राव से निकलने वाला खून पतला, थक्का और अधिक मात्रा में होता है. अधिक मात्रा में रक्त स्राव के साथ महिला की कटिप्रदेश में पीड़ा, उदर के निम्न प्रदेश में दर्द, हाथ- पैर के तलवों में जलन, दाह, बेचैनी एवं दुर्बलता आदि लक्षण होते हैं.

उपद्रव- यदि समय पर इस रोग का इलाज न किया जाए तो शरीर से अधिक रक्त निकल जाने पर कमजोरी, भ्रम, मूर्छा, मद, प्रलाप, पांडूता यानि खून की कमी, तन्द्रा, आक्षेप, कम्प आदि लक्षण हो जाते हैं.

अधिक रक्त निकल जाने पर मस्तिष्क में रक्त की भी कमी हो जाती है. जिससे भ्रम, मूर्छा, मद जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं. शरीर में पानी की कमी से प्यास बढ़ जाती है. पोषण के अभाव में महिला कमजोर हो जाती है. रक्त की अत्यधिक कमी से नाड़ी शोथ होकर दाह का अनुभव होने लगता है. मार्ग के आवरण एवं धातु क्षय से वायु का प्रकोप होता है. यहां भी रक्त धातु के क्षीण होने की प्रकुपित वायुप्रलाप तथा अन्य उपद्रवों जैसे- कृशता, कंप, नींद नही आना, कान में आवाज होना एवं स्वभाव में चिडचिडापन आदि को उत्पन्न करता है. पांडूता यानी एनीमिया रक्त क्षय का एक प्रधान लक्षण है.

रक्त प्रदर का घरेलू एवं आयुर्वेदिक उपाय-

1 .महिला को पूर्ण विश्राम देना चाहिए. यहां तक कि महिला को उठने- बैठने भी नहीं देना चाहिए. भोजन हल्का पुष्टिकारक देना चाहिए. इसके लिए दूध सबसे उत्तम होता है. पेडू पर शीतल जल की पट्टी या मिट्टी की पट्टी या बर्फ की पट्टी रखकर रक्तस्राव रोकने का पूर्ण प्रयास करना चाहिए. साथ ही योनि को फिटकरी के घोल से डूस करना चाहिए.

2 .महिला को आयुर्वेद में कैल्शियम प्रधान शास्त्रीय औषधियों विशेष रूप से व्यवस्थित ढंग से देनी चाहिए. इससे महिला के सामान्य स्वभाव में सुधार होता है तथा कैल्सियम देने से भोजन की खनिज लवणों की कमी पूर्ति हो जाती है एवं रक्त में जमने की शक्ति आ जाती है. तब रक्त जमने लगता है और रक्त स्राव बंद हो जाता है.

3 .आयुर्वेदानुसार रक्त स्राव बंद करने वाली सभी औषधियां प्रायः कैल्शियम प्रधान होती है. कैल्शियम प्रधान औषधियां शीतल एवं कीटनाशक होती है अत्यार्तव की चिकित्सा में यह आवश्यक है कि पहले कारण को मालूम कर दूर किया जाए. इसके बाद रक्त स्राव नाशक चिकित्सा करने से लाभ होगा.

रक्तस्राव नाशक चिकित्सा-

4 .अत्यार्तव की चिकित्सा में रक्तपित्तनाशक, रक्तातिसारनाशक सब प्रकार के योगों को प्रयोग करने से अच्छा लाभ होता है.

5 .वातिक अत्यार्तव ( रक्त प्रदर ) से पीड़ित महिला को गाय का दही, काला नमक, जीरा, मुलेठी और नीलकमल का चूर्ण बनाकर शहद के साथ सेवन कराना चाहिए.

6 .कभी-कभी कुशा की जड़ को तन्डूलोदक के साथ पीसकर 3 दिन तक सुबह खाली पेट पीने से रक्त प्रदर ठीक हो जाता है.

7 .बला की जड़ को गाय के दूध के साथ पीसकर अथवा कुशा और बला की जड़ों को संयुक्त करतन्डूलोदक के साथ पीसकर छानकर शहद और मिश्री मिलाकर पिलाने से लाभ होता है.

8 .आयुर्वेद में चंद्रकला रस का प्रयोग अत्यार्तव में किया जाता है. इसमें शुद्ध गंधक, शुद्ध पारद, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म को खरल में घोटकर मोथा, अनार, दुब, केतकी के रस, माता के दूध, सहदेवी, घृतकुमारी, पितपापड़ा, रामशीतला शतावरी के रस में एक-एक दिन भावना देकर इसमें कुटकी, गिलोय सत, पित्तपापड़ा, उशीर, पिपली, श्वेत चंदन, सारीवा बराबर मात्रा में चूर्ण कर डाल दें. तत्पश्चात मुनक्का के रस में 7 भावना देकर अनाज के ढेर में 3 दिन तक रखकर चने के बराबर गोलियां बना लें. इसकी एक- दो गोली दिन में दो तीन बार सेवन कराएं. इस योग से महिलाओं के घोर रक्तस्राव भी रुक जाता है.

9 .काला नमक 40 ग्राम, सफेद जीरा 40 ग्राम, मुलेठी 20 ग्राम, कमलगट्टा 20 ग्राम, शहद 60 ग्राम- सभी औषधियों को कूट पीसकर चूर्ण बना लें और शहद में मिलाकर रख लें. अब इसमें से 250 मिलीग्राम औषधि प्रतिदिन सुबह-शाम कुछ दिन तक सेवन करने से रक्त प्रदर रोग ठीक हो जाता है.

10 .अशोक की छाल 24 ग्राम को आधा लीटर पानी में तथा आधा किलो दूध में डालकर उबालें. जब आधा किलो रह जाए तब उतार लें और छान कर उचित मात्रा में पिलावें. साथ ही त्रिफला का काढ़ा अथवा पानी में जरा सा पोटाश ऑफ पर मैग्नेट मिला कर डूस की सहायता से योनि को धोना चाहिए. इससे प्रदर रोग में अच्छा लाभ होता है.

11 .रक्त प्रदर में सुबह- शाम प्रदरारिलौह और भोजन के बाद अशोकारिष्ट पीना फायदेमंद होता है. अथवा राल और लाख का चूर्ण बराबर मात्रा में मिलाकर 1.5 ग्राम सुबह-शाम पानी के साथ सेवन करने से रक्त प्रदर ठीक हो जाता है.

12 .प्रवाल भस्म, वंशलोचन, सफ़ेद राल सभी को बराबर मात्रा में लेकर पीसकर पाउडर बनाकर सुरक्षित रखें और इसमें से 1 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम ठंडे पानी के साथ सेवन करने से रक्त प्रदर ठीक हो जाता है.

13 .सफेद राल 100 ग्राम, प्रवाल पिष्टी 15 ग्राम, मिश्री 100 ग्राम, कलमी सोडा 30 ग्राम इन सब को पीसकर छानकर सुरक्षित रखें. अब इस में से 3-4 ग्राम की मात्रा में दिन में दो बार ठंडे पानी के साथ सेवन करने से रक्त प्रदर ठीक हो जाता है.

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14 .पके गूलर के फल को सुखाकर चूर्ण बना लें. अब इसमें से 3 ग्राम चूर्ण और 3 ग्राम मिश्री सुबह-शाम गाय के दूध के साथ सेवन करें इससे रक्त प्रदर ठीक हो जाता है.

नोट- यह लेख शैक्षणिक उद्देश्य से लिखा गया है. किसी भी प्रयोग से पहले योग्य चिकित्सक की सलाह जरूर लें. और लेख पसंद आए तो शेयर करें. धन्यवाद.

स्रोत- स्त्रीरोग चिकित्सा पुस्तक.

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The information given on this website is based on my own experience and Ayurveda. Take the advice of a qualified doctor (Vaidya) before any use. This information is not intended to be a substitute for any therapy, diagnosis or treatment, as appropriate therapy according to the patient's condition may lead to recovery. The author will not be responsible for any damage caused by improper use. , Thank you !!

Dr. P.K. Sharma (T.H.L.T. Ranchi)

मैं आयुर्वेद चिकित्सक हूँ और जड़ी-बूटियों (आयुर्वेद) रस, भस्मों द्वारा लकवा, सायटिका, गठिया, खूनी एवं वादी बवासीर, चर्म रोग, गुप्त रोग आदि रोगों का इलाज करता हूँ।

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