हेल्थ डेस्क- धमनी काठिन्य को धमनी जठरता अथवा धमनी का कड़ा होना भी कहा जाता है .इस रोग में धमनी की दीवार के बीच के भाग में विनाशकारी परिवर्तन फाइब्रस धातु का संचय तथा कैल्सियम का संचय ( जमा होना ) होता है. धमनी की दीवार के अंदर का भाग ऊंचा- नीचा हो जाता है. इसके साथ ही दीवार पर घाव भी हो सकता है.
फाइब्रस धातु जमने के कारण धमनी का क्षेत्र छोटा हो जाता है. जिसके कारण रक्त संचार में कमी हो जाती है और परिश्रम के समय पेशी को पर्याप्त मात्रा में रक्त नहीं मिलता है जिसके कारण दर्द उत्पन्न हो जाती है.

धमनी काठिन्य का सामान्य कारण-
1 .यह वृद्धावस्था का एक व्यापक रोग है. यह अधिकांश रूप से 60 से 65 वर्ष की अवस्था में मिलने वाला रोग है.
2 .मधपान, तंबाकू का सेवन मलावरोध, चिरकारी ( पुराने ) वृक्क शोथ, रक्तचाप की वृद्धि, डायबिटीज, पुराने ब्रोंकाइटिस, गठिया रोग आदि से इसका घनिष्ठ संबंध प्रतीत होता है.
3 .विटामिन की कमी भी इस रोग का कारण माना जाता है.
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लाक्षणिक दृष्टिकोण से इसको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है ?
1 .एथीरोस्क्लेरोसिस- जो प्रधान रूप से महाधमनी तथा उसकी मुख्य शाखाओं को अक्रांत करता है.
2 .पेरीफेरल आर्टीरियोस्क्लेरोसिस- जो धमनियों की परिधि की शाखाओं को अक्रांत करता है.
1 .एथीरोस्क्लेरोसिस के कारण क्या है?
यह रोग कोलेस्ट्रोल, मेटाबॉलिज्म के विकार के परिणाम स्वरुप होता है. यह इसका प्रमुख कारण माना जाता है.
प्रवर्तनपूर्व कारण-
- उम्र- जैसे- जैसे रोगी की उम्र बढ़ती जाती है वैसे- वैसे इस रोग की संभावना बढ़ती जाती है.
- लिंग- पुरुषों में यह रोग अधिक होता है. लेकिन आर्तव काल के उपरांत महिलाओं में यह रोग पुरुषों के समान ही होता है.
- अति रक्तदाब इसका एक विशेष कारण है.
- अनुवांशिक प्रवृत्ति यानी माता-पिता या दादा दादी में से किसी को यह रोग है तो उसके संतान को भी हो सकता है.
- अधिक भोजन करने से भी यह रोग हो सकता है.
- अधिक शराब, धूम्रपान आदि के सेवन से भी यह रोग हो सकता है.
- शरीर का अधिक मोटा होना भी इसका बीमारी का कारण बन सकता है.
2 .पेरीफेरल आर्टीरियोस्क्लेरोसिस-
यह दो प्रकार के होते हैं.
1 .मीडियल स्क्लेरोसिस
2 .गलन एवं सडन का विसरीत अति विकसन काठिन्य.
आर्टीरियोस्क्लेरोसिस के मुख्य लक्षण-
- यह रोग धीरे- धीरे शुरू होता है तथा वृद्धावस्था तक मिलता है.
- शुरू में इसके कोई लक्षण दिखाई नहीं देते हैं जब तक कि इस रोग के कारण कोई विशिष्ट भाग पूर्ण रूप से प्रभावित नहीं हो जाता है. कुछ रोगियों में विभिन्न धमनियों में विस्तृत स्थूलता उत्पन्न हो जाती है. रोगी को समय से पहले ही वृद्धावस्था प्रतीत होने लगती है. रोगी का ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ रहता है. इस रोग में ह्रदय की अति वृद्धि हो जाती है. विस्तृत अतिविकसन काठिन्य में रेडियम आर्टेरी चाबुक के कोड़े के समान दृढ हो जाता है.
सेरिब्रल के लक्षण-
- रोगी में मानसिक हानि, एकाग्रता की कमी तथा नींद नहीं आने की समस्या जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं.
- कभी-कभी रोगी में भ्रम, क्षणिक संज्ञानाश, आंशिक घात तथा मिर्गी के समान आंखें होने लगते हैं.
- कभी-कभी रोगी में क्षणिक अंधापन का लक्षण भी दिखलाई देता है.
- कभी-कभी धड़ तथा अधोशाखाओं में दृढ़ता उत्पन्न हो जाती है.
उपद्रव- सेरीब्रम थ्रोम्बोसिस तथा रक्तस्राव.
ह्रदय संबंधी लक्षण- एओर्टा तथा कोरोनरी आर्टेरी के एथीरोस्क्लेरोसिस के कारण रोगी में एन्यूरिज्म, एओर्टिक इनकॉम्पीटेंस, मायोकार्डियल डिजनरेशन, कार्डियक हाइपरट्रॉफी एंजाइना पेक्टोरिस कोरोनरी थ्रोम्बोसिस आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं.
पेट से संबंधित लक्षण- इस रोग के कारण पेट में दर्द, कब्ज और मेसेंट्रिक थ्रोम्बोसिस आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं.
वृक्क तथा मूत्र संबंधित लक्षण- वृक्कों में आर्टीरियो स्क्लेरोसिस के कारण वृक्कों का रोग हो जाता है. मूत्राशय में रोग के परिणाम स्वरूप रक्तमुत्रता की उत्पत्ति हो जाती है.
परिसरीय लक्षण- पैरों की धमनियों के प्रभावित होने पर इंटरमिटेंट क्लॉडिकेशन नामक उपद्रव हो जाता है.
इस रोग में रोगी चलने में असमर्थ हो जाता है साथ ही पैरों में अत्यधिक दर्द हो जाती है. रोग बढ़ने पर पैरों में ऐंठन का रोग हो जाता है आगे चलकर गैंग्रीन की संभावना अधिक हो जाती है.
धमनी काठिन्य अन्य लक्षण-
1 .विसरित अतिविकसन काठिन्य में रोगी का सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर बढ़ कर 180 मिलीमीटर तक हो जाता है. इसके साथ ही वित्तीय कार्डियक हाइपरट्रॉफी हो जाती है. ऐसी अवस्था में रोगी हाइपरटेंसिव ह्रदय रोग से ग्रसित हो जाता है.
2 .वृद्धावस्था में मूत्र पर मस्तिष्क नाड़ियों का नियंत्रण समाप्त हो जाता है जिससे रोगी में मुत्रावरोध का रोग होने की संभावना रहती है.
3 .कोष्ठांगो को रक्त पहुंचाने वाली धमनियों की मांसमय स्तर के कठोर हो जाने से कोष्ट संबंधी अंगों को रक्त की पूरी मात्रा नहीं मिल पाती है जिससे अमाशय में एसिड की मात्रा कम हो जाती है. जिसके कारण भूख तथा पाचन शक्ति कम हो जाती है. अंत में अरुचि, अफारा तथा दर्द आदि लक्षण मिलने लगते हैं.
4 .यकृत का आकार कुछ छोटा हो जाता है. रोगी को पोषण न मिलने से उसका वजन कम हो जाता है.
5 .अब यदि इन धमनियों में स्रोतोंरोध की भी प्रतिक्रिया होने लगे तो अजीर्ण, मधुमेह, अधिक मलबंध तथा पेट में गैस होने के लक्षण मिलने लगते हैं.
6 .आंत के एक भाग को रक्त न मिलने से वह भाग मृत हो जाता है. जिससे पेरीटोनाइटिस का रोग हो जाता है. इस अवस्था में कोष्ट की दीवार में स्पर्शाक्षमता का लक्षण मिलता है.
पांव संबंधी लक्षण- जब पैरों को खून कम मिल पाता है तब अंगुलियों के सिरे ठंडे रहते हैं.
नोट- यदि एक पांव दूसरे की अपेक्षा अधिक ठंडा रहे तो इस रोग का निश्चय हो जाता है. अंगुलियों को रक्त ना मिलने से उनका रंग कुछ पांडूमय हो जाता है तथा वहां की त्वचा पतली पड़ जाती है. नाखून कठोर खुरदरे तथा भंगुर हो जाते हैं. अंगुलियों पर बाल नहीं रहते हैं तथा वहां की मांसपेशियां सूख जाती है. पैरों की अंगुलियों में दर्द होने लगता है. अंगुलियों की चमक समाप्त हो जाती है. पैर ठंड सहन करने में असमर्थ हो जाते हैं.
जंघा संबंधित लक्षण- अवरोध अधिक होने पर तीव्र जंघा शूल उत्पन्न हो जाता है जिससे उसे आगे कदम रखना असंभव हो जाता है. रोगी वहीं खड़ा हो जाता है और खड़े होने पर दर्द शांत हो जाता है.
त्वचा संबंधित लक्षण- त्वचा की शुष्कता, छिलकों का झड़ना, कोमलता की कमी, दबाने पर नाखून में रंग का देर से आना तथा घावों का देर से भरना आदि लक्षण होते हैं.
अस्थि संबंधित लक्षण- खून की कमी से अस्थियों को कैल्शियम कम मिल पाता है. जिससे ओस्टियोपोरोसिस का रोग हो जाता है जिससे वृद्धावस्था में वह अधिक पोली तथा भंगुर हो जाती है. ऐसी अस्थियाँ थोड़े झटके से ही टूट जाती है. फीमर के हिस्से पर तथा रेडियम के निचले भाग का अस्थि भंग हो जाता है. रोगी के पृष्ठ में वेदना का लक्षण मिलता है.
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मांस पेशी संबंधी लक्षण- इस रोग के कारण मांसपेशियां का पोषण कम हो जाता है. जिससे थोड़े परिश्रम से ही वे थक जाती है. पैरों, जोड़ो एवं कूल्हों की संधियों पर मांस पेशियां कुछ-कुछ संकुचित होती है.
संधि संबंधित लक्षण- संधियों में विशेषकर कूल्हे, जोड़ों तथा रीढ़ की हड्डी को पोषण कम मिलने से वह खुरदरी तथा विषम आकृति की हो जाती है. रोगियों में ओस्टियोआर्थराइटिस का रोग हो जाता है. संधियों का लचीलापन समाप्त होकर उनमें फाइब्रोसिस आ जाने से स्तब्धता हो जाती है. यह रोग स्थूल ( मोटे ) व्यक्तियों में अधिक होता है.
श्वास संबंधित लक्षण- श्वास नलिकाओं तथा श्वासकोष्ठकों की मांस पेशियों में कठोरता होने पर वह निर्बल हो जाती है. जिससे फेफड़ों की क्षमता घट जाती है और श्रम करने से श्वास फूलने लगता है. एम्फी सीमा का रोग हो जाता है. फेफड़ों में अधिक स्राव संचित होने लगता है जिससे उसे में इंफेक्शन सुगमता से पहुंच जाता है.
उपद्रव इस रोग में अनेक रुप के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं.
1 .रक्तदाब ( ब्लडप्रेशर )
2 .गैंग्रीन.
3 .मस्कुलर डिजनरेशन.
4 .आगे चलकर ब्रोंकाइटिस की अधिक संभावना रहती है.
धमनी काठिन्य रोग का आयुर्वेदिक एवं घरेलू उपाय-
1 .इस रोग की चिकित्सा उच्च रक्तचाप के समान किया जाता है.
2 .आर्टीरियो स्क्लेरोसिस को रोकने के लिए सामान्य चिकित्सा के अंतर्गत विटामिन ए तथा विटामिन बी का भरपूर मात्रा में प्रयोग करना चाहिए.
3 .यदि मधुमेह रोग हो तो उसकी पूर्ण चिकित्सा करनी चाहिए.
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4 .विटामिन B12 को 1- 2 हजार मिलीग्राम की मात्रा में कुछ समय तक देना चाहिए. इससे कोलेस्ट्रोल की मात्रा घट जाती है.
5 .तंबाकू सेवन से पूर्णतया निषेध कर देना चाहिए.
6 .सैचुरेटेड फैट के स्थान पर अनसैचुरेटेड फैट्स का प्रयोग करना चाहिए.
7 .धमनी काठिन्य रोग में कफ वात दोष नाशक औषधियों का सेवन करना फायदेमंद होता है.
8 . इस रोग में वर्धमान पीपली का प्रयोग अच्छा लाभदायक है. इसके लिए 1- 1 रत्ती पीपली चूर्ण गाय के दूध के साथ आरंभ करके क्रमशः 22 रत्ती तक बढ़ाए. उसके बाद उसी क्रमानुसार घटायें. यदि रोगी को दूध के साथ सेवन करना पसंद ना हो तो शहद के साथ सेवन किया जाता है. इस प्रयोग के समय आहार में दोपहर के समय सिर्फ भुना हुआ दलिया और रात्रि में मेथी के साग की सब्जी के साथ बाजरे की रोटी, जौ अथवा मूंग का प्रयोग करना लाभदायक होता है.
9 .बच, नीम की छाल व पीपली का काढ़ा बनाकर दिन में दो तीन बार सेवन कराने से लाभ होता है.
10 .मदनफल ( मैन फल ) छोटी पीपल, हरड़, कायफल व सोठ का क्वाथ बनाकर दिन में दो बार रोगी को पिलाने से लाभ होता है.
11 .वृहत् वात चिंतामणि रस 1 रत्ती और पीपल का चूर्ण 3 रत्ती मिलाकर सुबह-शाम सेवन कराने से अच्छा लाभ होता है.
12 .यदि मालावरोध की समस्या हो तो गोमूत्र में सिद्ध हरड़ चूर्ण का सेवन कराएं, इसके प्रयोग से मलावरोध दूर हो जाता है एवं रक्त वाहिनी भी खुल जाती है. इस रोग से छुटकारा पाने के लिए गोमूत्र सिद्ध हरड़ चूर्ण 2 ग्राम और हल्दी 1 ग्राम मिलाकर शहद के साथ सेवन कराना चाहिए.
13 .बृहद कस्तूरी भैरव रस 1 रत्ती का शहद के साथ सेवन करने के बाद 20 मिलीलीटर दशमूलारिष्ट सुबह- दोपहर दिन में 2 बार सेवन कराएं.
14 .धमनी काठिन्य रोग में लहसुन का सेवन अति गुणकारी साबित हो सकता है. इसके लिए लहसुन की कुछ कलियों को घी में भूनकर रख लें और एक से दो कली सुबह खाली पेट सेवन करें. इससे अच्छा लाभ होगा.

15 .लसुनादि वटी, महायोगराज गुग्गुल, अमृतादिगुग्गुल इत्यादि वात नाशक औषधियों का सेवन कराना लाभदायक होगा.
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नोट- यह लेख शैक्षणिक उद्देश्य से लिखा गया है. अधिक जानकारी के लिए और उचित इलाज के लिए डॉक्टर की सलाह लें. धन्यवाद.